सचमुच ‘अच्छा’ कुछ भी नहीं! अधिकांश लोग या तो अपना रोना लिए मिलेंगे या भक्ति में बेसुध। आप कह सकते हैं कि ऐसा मैं पूर्वाग्रह में लिख रहा हूं। मैं खुद मानता हूं कि दिमाग-बुदधि की झनझनाहट में ‘अच्छा’ यदि खत्म हुआ लग रहा है तो ऐसा होना उम्र व अनुभव की वजह से है। हो सकता है नौजवान ऐसा न सोचें। आखिर उसने देखा ही क्या है। सो, गपशप मेरे परस्पेशन से है। मेरी दो टूक मान्यता है कि भारत का फैब्रिक बिगड़ गया है। भारत के मौजूदा वक्त, मौसम, परिवेश, ढांचे, बुनावट-बनावट और जिंदगी में पुराना ‘अच्छा’ सब खलास है। जलवायु, आबोहवा ऐसी बिगड़ी है कि मैं गर्मी, ह्यूमिडिटी से तौबा किए हुए हूं। सावन अब काटता है! झुलसाता है।
Become a member to read the full article Become a member